उम्रकैद का मतलब, जिदंगी भर के लिए जेल
उम्रकैद को लेकर गलतफहमी को दूर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि आजीवन कारावास का मतलब यह है कि दोषी को ताउम्र जेल में रहना होगा।
न्यायालय ने यह भी कहा कि साल 1980 में इसकी संवैधानिक पीठ ने अपने फैसले में मौत की सजा दिए जाने की जो कसौटियां बताई थीं उन पर ‘फिर से विचार की जरूरत’ है क्योंकि जिन सिद्धांतों के आधार यह सजा सुनाई जा रही है उनमें ‘एकरूपता नहीं’ है।
शीर्ष न्यायालय ने अपने फैसले में कहा, ‘हमें यह लगता है कि इस बाबत कुछ गलतफहमी है कि उम्रकैद की सजा काट रहे कैदी को 14 साल या 20 साल की सजा पूरी हो जाने पर रिहा होने का पूरा अधिकार है। कैदी को ऐसा कोई अधिकार नहीं है।’
न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर की पीठ ने कहा, ‘उम्रकैद की सजा काट रहे दोषी को उसकी जिंदगी खत्म होने तक हिरासत में रहना है। वह इससे पहले तभी रिहा किया जा सकता है जब सरकार की ओर से उसकी सजा में कोई छूट दी जाए।’
बहरहाल, पीठ ने स्पष्ट किया कि उम्रकैद की सजा काट रहे किसी कैदी को सजा में छूट देते वक्त सरकार सजा की अवधि 14 साल से कम नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, ‘उम्रकैद की सजा काट रहा कैदी अनिश्चित अवधि तक हिरासत में रहेगा। लिहाजा, यदि उम्रकैद की सजा काट रहे कैदी को सजा में छूट दी जाती है तो इसे नियम नहीं मानना चाहिए क्योंकि हर मामले में ऐसा नहीं किया जा सकता और यह तथ्यों के आधार पर ही होता है।’
न्यायालय ने कहा, ‘ऐसे मामलों में सजा की अवधि कम करने के लिए सरकार को सीआरपीसी की धारा 432 के तहत एक विशेष आदेश पारित करना होगा। हालांकि, सीआरपीसी की धारा 433-ए के तहत सजा की अवधि 14 साल से कम नहीं की जा सकती।’
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से अब ‘त्योहारों’ या ‘विशेष अवसरों’ पर सरकारों की ओर से बड़ी तादाद में कैदियों की रिहाई के चलन पर भी रोक लगेगी। पीठ ने कहा कि एक-एक मामले की पड़ताल के बाद ही रिहाई होनी चाहिए।
शीर्ष न्यायालय ने यह भी कहा कि मौत की सजा दिए जाने के हालिया फैसलों के आधार में ‘एकरूपता’ की कमी देखी गई है और ये ज्यादा ‘न्यायाधीश-केंद्रित’ हो गए हैं
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