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न्यायिक क्षेत्र में बदलाव की उम्मीद

कई पूर्व न्यायाधीशों और कानून विषशज्ञों का मानना हैं कि नई व्यवस्था का फायदा तभी होगा, जब यह व्यवस्था पूरी तरह से पारदर्शी और वरीयता पर आधारित हो। न्यायाधीशों का चयन जब तलक पारदर्शी और वरीयता क्रम के आधार पर नहीं होगा, तब तलक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आएगा। क्योकि यह जानी-समझी बात है कि चाहे कोई सा भी कानून आ जाए, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था में कौन बैठा हुआ है। नई व्यवस्था का फायदा भी तभी होगा, जब लोग सही तरह से काम करें और व्यवस्था पारदर्शी हो।  

उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिए प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग को संवैधानिक दर्जा देने पर हाल ही में केबिनेट की मोहर लग गई। आयोग के संवैधानिक दर्जा मिलने के बाद पैनल के स्वरूप में छेड़छाड़ नहीं की जा सकेगी। इसमें बदलाव के लिए संविधान संशोधन करना होगा, जो कि आसान काम नहीं होगा। न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक के संशोधनों का प्रस्ताव कैबिनेट द्वारा मंजूर किए जाने के बाद यह उम्मीद बंधना लाजिमी है कि विधेयक संसद के आगामी सत्र में जरूर पारित हो जाएगा। प्रस्ताव के मुताबिक अब संविधान में दो नए अनुच्छेद-124 ए और 124 बी जोड़े जाएंगे। अनुच्छेद-124 ए में न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का जि होगा, जबकि 124बी में इसके कामकाज का विवरण होगा। विधेयक मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को भी समाप्त करने का प्रस्ताव करता है। जिसके तहत फिलहाल जजों की नियुक्ति होती है। अभी हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश और शीर्ष अदालत के चार वरिष्ठतम जजों की कॉलेजियम की सिफारिश पर होती है। नियुक्ति में सरकार का कोई दखल या भागीदारी नहीं होती।

गौरतलब है कि संसद के मानसून सत्र में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया स्थापित करने के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश किया था, जिसके मुताबिक भविष्य में ऐसी सभी नियुक्तियां न्यायिक नियुक्ति आयोग करेगा। न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन के लिए अलग से न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक रखा गया। प्रस्तावित पैनल कैसा होगा? पैनल में कौन लोग शामिल होंगे ? इसका जिक्र न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक में तो है, लेकिन संविधान संशोधन विधोयक में पैनल के सदस्यों का ब्योरा नही था। इसमें सिर्फ इतना कहा गया है कि जजों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाला पैनल करेगा। बहरहाल रायसभा में यह दोनों विधेयक पास तो हो गए, लेकिन फिर भी पैनल में बदलाव की आशंका जताते हुए, प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने इसे संविधान का हिस्सा बनाए जाने की अपनी मांग जारी रखी। विपक्षी पार्टियों की मांग को मानते हुए सरकार ने इस विधेयक को कानून विभाग की संसदीय समिति के पास विचार के लिए भेज दिया। संसदीय समिति ने भी विपक्षी पार्टियों और कानून के विषेशज्ञों की इस दलील से रजामंदी जतलाई कि न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन की प्रयिा संवैधानिक प्रावधान के तहत होनी चाहिए, ताकि सरकारें जब चाहें साधारण विधेयक पास कर इसके स्वरूप में हेरफेर न कर पाएं। प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक के तहत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुआई में एक सात सदस्यीय आयोग बनेगा। इस आयोग में सुप्रीम कोर्ट के दो जज, कानून मंत्री और दो प्रख्यात नागरिक होंगे। प्रख्यात नागरिकों का चयन एक समिति करेगी। जिसमें प्रधानमंत्री, भारत के प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता शामिल होंगे। कानून मंत्रालय में सचिव (न्याय) आयोग के संयोजक होंगे। नई व्यवस्था के अमल में आने के बाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्तियां के अलावा उनके स्थानांतरण का भी फैसला आयोग ही करेगा। अलबत्ता कानून मंत्रालय ने संसदीय समिति की उस सिफारिश को नामंजूर कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि देष के 24 हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए राय स्तर का अलग न्यायिक नियुक्ति आयोग बने।

लंबे समय से हमारे देश में उच्चतर अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रयिा को और यादा पारदर्शी और समावेशी बनाने की बहस चल रही थी। दुनिया भर में किसी विकसित लोकतंत्र में ऐसी कोई दूसरी मिसाल देखने को नहीं मिलती, जहां न्यायधीशों को खुद न्यायाधीश ही नियुक्त करते हों। यानी, उसमें विधायिका या कार्यपालिका की कोई भूमिका न रहती हो। हालांकि साल 1993 से पहले, हमारे यहां सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश विधि मंत्रालय द्वारा भेजे गए नामों पर विचार करते थे, लेकिन कॉलेजियम सिस्टम की शुरुआत के बाद सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार अन्य वरिश्ट न्यायाधीश फैसला लेने लगे। एक लिहाज से देखा जाए, तो इस नियुक्ति प्रयिा से शक्ति का विकेंद्रीकरण हुआ, लेकिन पहले के सिस्टम और बाद में कॉलेजियम सिस्टम दोनों में भी वक्त के साथ खामियां दिखने लगीं। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति, न्यायाधीशों द्वारा करने की मौजूदा प्रणाली ने न्यायपालिका में आहिस्ता-आहिस्ता संरक्षणवाद और भ्रष्टाचार का रूप ले लिया है। दीगर क्षेत्रों की तरह अब वहां भी पक्षपात और भ्रष्टाचार का बोलवाला दिखने लगा है। चयनमंडल के अधिकार क्षेत्र की मौजूदा प्रयिा के दोषपूर्ण होने की सबसे गंभीर मिसाल पिछले दिनों कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस पीडी दिनकरन के रूप में हमारे सामने आई, जिन पर भ्रष्टाचार के इल्जाम में संसद के अंदर महाभियोग की प्रक्रिया भी चली। यही कुछ वजह थीं, जिसके चलते कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठने लगे थे और नियुक्ति प्रयिा को बदला जाना जरूरी हो गया था। न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रस्तावित प्रणाली से अब न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों समान रूप से उत्तरदायी होंगी।  बहरहाल नई व्यवस्था के अमल में आने के बाद भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता कि इस व्यवस्था से सब कुछ ठीक ही होगा। नई व्यवस्था को लेकर इस बात की आशंका बनी रहेगी कि कहीं अब सरकार की दखलअंदाजी न बढ़ जाए। इस कानून से न्यायिक क्षेत्र में कितना बदलाव आएगा, यह तो आने वाला वक्त ही बतलाएगा। कई पूर्व न्यायाधीशों और कानून विषशज्ञों का मानना हैं कि नई व्यवस्था का फायदा तभी होगा, जब यह व्यवस्था पूरी तरह से पारदर्शी और वरीयता पर आधारित हो। न्यायाधीशों का चयन जब तलक पारदर्शी और वरीयता क्रम के आधार पर नहीं होगा, तब तलक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं आएगा। क्योकि यह जानी-समझी बात है कि चाहे कोई सा भी कानून आ जाए, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यवस्था में कौन बैठा हुआ है। नई व्यवस्था का फायदा भी तभी होगा, जब लोग सही तरह से काम करें और व्यवस्था पारदर्शी हो

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